ग्यारहवें महाप्रयाण दिवस के उपलक्ष्य में
हे महायोगी!
मैंने ढूँढा तुमको,
जल-थल-अम्बर में,
महाप्रज्ञ मुस्कुराए,
देखो निज अन्तर में,
भाव विह्वल नत मस्तक,
हृदय पुकारे,
हे देव! प्रज्ञा वर दो,
भटक रही हूँ, यहाँ-वहाँ,
मुक्ति-मार्ग प्रशस्त कर दो।
मैं ना जानूँ,
पूजन की रीति-नीति,
सहज सरल रहूँ सर्वदा,
अकिञ्चन की जीवन-नीति।
नये मानव की कल्पना,
समग्र विश्व को भायी,
अद्भुत चिन्तन ज्योति,
जन-मन में जगमगायी।
तेरे अवदानों की कथा,
मैं ना कह पाऊँगी,
संवेदन सलिला निर्मला,
चुपचाप बह जाऊँगी।
कौन जान सकेगा,
उजाले की गहन पीर,
कुछ तो कहो,
हे पुरुषार्थी धीर-गम्भीर।
जीवन-पोथी में उकेरे,
अनुभूतियों के स्वस्तिक,
सौभागी शब्द-अलंकार,
मोती-से उजले स्फटिक।
यकायक गूँजी,
योगीराज की वाणी,
देह से परे,
अटल जन कल्याणी।
सुनो भोले श्रावकों!
करो न मेरा गुणगान,
अणुव्रत साधो,
आचरण में दो स्थान।
मैं कहाँ दूर हूँ,
महाश्रमण में निहारो
भवोदधि से
अपने को तुम तारो ।
और फिर….
दिव्य आलोक
आत्म प्रदेश में छाया
यूँ मैंने
महाप्रज्ञ को पाया ।
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✍🏻 पुष्पा सिंघी , कटक